"आज से तीन साल पहले आप हमको छोड़कर चले गये पर आज भी आपका साथ हम महसूस करते है याद करते है आपकी बातो को और प्रेरित होते है कुछ अच्छा करन...
"आज से तीन साल पहले आप हमको छोड़कर चले गये पर आज भी आपका साथ हम महसूस करते है याद करते है आपकी बातो को और प्रेरित होते है कुछ अच्छा करने के लिए "
कुछ लोग इस देश में ऐसे भी होते है जिनका जीवन बहुत ही संघर्षशील होता है , वो दूसरो के लिए बहुत कुछ कर गुजरते है ,लेकिन नीव कि ईंट बनकर रह जाते है . ऐसे ही एक शख्स थे पूजनीय ठाकुर सिंह जी और हमारे दादा जी . ठाकुर सिंह जी का जन्म सन १९०३ को यू.पी. के बिजनौर जिले के अफजलगढ़ क्षेत्र के दहलावला गाँव में हुआ था . वो एक ऐसे शख्स थे जो निडर थे बस एक बार जिस बात को ठान लिया उसको पूरा कर के ही दम लेते थे .काफी लम्बे समय तक वो अपने यहाँ के सरपंच रहे और अफजलगढ़ क्षेत्र में एक सरपंच के रूप में ही विख्यात हो गये . सब उनको सरपंच साहब कहते थे . जब गाँव वालो पर कोई आपत्ति आती या कोई भी झगडा होता तो सब गाँव वाले उनको आगे कर देते थे जिससे कि अगर कोई समस्या हो तो इन्ही का नाम आये लेकिन वो ये सब जानते हुए भी कि इससे उनका नुक्सान हो सकता है ,अकेले ही मोर्चे पर डट जाते थे, और गाँव वालो को नियाय दिलाकर ही रहते थे. अफजलगढ़ क्षेत्र के काफी लोग उनसे सलाह लेने आते थे . हालाकि क्षेत्र के कुछ लोग सोचते थे कि सरपंच साहब कठोर दिल के आदमी है वो किसी कि नहीं सुनते उन्हें मनाना आसान नहीं है और पर उनकी ये गलतफमी तब दूर हो जाती जब वो उनके निकट आते थे . दादा जी एक अनुसासनप्रिय व्यक्ति थे ,वो हर गलत बात के खिलाफ थे ,इसलिए उनको काफी नुक्सान भी हुआ और यही कारण था कि लोग उनको कठोर समझते थे क्यों कि जब क्षेत्र का कोई भी व्यक्ति उनसे गलत बात या काम के लिए कहता तो वो मना कर देते थे और कभी कभी तो लड़ भी पड़ते थे . दादा जी बात के पक्के व्यक्ति थे , बात कि खातिर उन्होने बहुत तियाग किया. वो पैदल चलने के बहुत बड़े शौक़ीन थे , उन्होने अपने जीवन में ६-७ मुकदमे भी लड़े, जिनमे उनको सफलता भी मिली , उनके वकील भी उनसे सलाह लेकर ही काम करते थे और उनकी बातो को ध्यान से सुनते थे और कहते कि सरपंच साहब आप तो खुद वकीलों से जायदा जानते हो.मुकदमो के सिलसिलो में वो अपनी बेटी(वूआ जी ) के घर बिजनौर जाते थे और वह ५ -६ दिनों तक रूकते भी थे पर बेटी के घर का खाना नहीं खाते थे. बाहर से फल मंगाकर ही ५ दिन तक पेट भरते थे. अपने १०४ साल के जीवन में उन्होने कभी कोई अंडा या मांस नहीं खाया ,ना ही कभी धूम्रपान किया.उनकी एक बात कभी कभी हमारे मन में जिज्ञासा उत्पन्न करती थी वो हमेसा दिन में खाना खाने के बाद पक्षियों को भी दान डालते थे .उनका जीवन बहुत ही संघर्षशील था . 21 दिसम्बर २००७ को वो हम सब से विदा हो गये .उनका १०४ साल का जीवन हमको प्रेरित करता है !
"किसी से ना दबने वाले, ना ही डरने वाले बस अपने स्टाइल में जीवन जीने वाले पूजनीय दादा जी को हम शत शत नमन और श्रधांजलि अर्पित करते है !"
कुछ लोग इस देश में ऐसे भी होते है जिनका जीवन बहुत ही संघर्षशील होता है , वो दूसरो के लिए बहुत कुछ कर गुजरते है ,लेकिन नीव कि ईंट बनकर रह जाते है . ऐसे ही एक शख्स थे पूजनीय ठाकुर सिंह जी और हमारे दादा जी . ठाकुर सिंह जी का जन्म सन १९०३ को यू.पी. के बिजनौर जिले के अफजलगढ़ क्षेत्र के दहलावला गाँव में हुआ था . वो एक ऐसे शख्स थे जो निडर थे बस एक बार जिस बात को ठान लिया उसको पूरा कर के ही दम लेते थे .काफी लम्बे समय तक वो अपने यहाँ के सरपंच रहे और अफजलगढ़ क्षेत्र में एक सरपंच के रूप में ही विख्यात हो गये . सब उनको सरपंच साहब कहते थे . जब गाँव वालो पर कोई आपत्ति आती या कोई भी झगडा होता तो सब गाँव वाले उनको आगे कर देते थे जिससे कि अगर कोई समस्या हो तो इन्ही का नाम आये लेकिन वो ये सब जानते हुए भी कि इससे उनका नुक्सान हो सकता है ,अकेले ही मोर्चे पर डट जाते थे, और गाँव वालो को नियाय दिलाकर ही रहते थे. अफजलगढ़ क्षेत्र के काफी लोग उनसे सलाह लेने आते थे . हालाकि क्षेत्र के कुछ लोग सोचते थे कि सरपंच साहब कठोर दिल के आदमी है वो किसी कि नहीं सुनते उन्हें मनाना आसान नहीं है और पर उनकी ये गलतफमी तब दूर हो जाती जब वो उनके निकट आते थे . दादा जी एक अनुसासनप्रिय व्यक्ति थे ,वो हर गलत बात के खिलाफ थे ,इसलिए उनको काफी नुक्सान भी हुआ और यही कारण था कि लोग उनको कठोर समझते थे क्यों कि जब क्षेत्र का कोई भी व्यक्ति उनसे गलत बात या काम के लिए कहता तो वो मना कर देते थे और कभी कभी तो लड़ भी पड़ते थे . दादा जी बात के पक्के व्यक्ति थे , बात कि खातिर उन्होने बहुत तियाग किया. वो पैदल चलने के बहुत बड़े शौक़ीन थे , उन्होने अपने जीवन में ६-७ मुकदमे भी लड़े, जिनमे उनको सफलता भी मिली , उनके वकील भी उनसे सलाह लेकर ही काम करते थे और उनकी बातो को ध्यान से सुनते थे और कहते कि सरपंच साहब आप तो खुद वकीलों से जायदा जानते हो.मुकदमो के सिलसिलो में वो अपनी बेटी(वूआ जी ) के घर बिजनौर जाते थे और वह ५ -६ दिनों तक रूकते भी थे पर बेटी के घर का खाना नहीं खाते थे. बाहर से फल मंगाकर ही ५ दिन तक पेट भरते थे. अपने १०४ साल के जीवन में उन्होने कभी कोई अंडा या मांस नहीं खाया ,ना ही कभी धूम्रपान किया.उनकी एक बात कभी कभी हमारे मन में जिज्ञासा उत्पन्न करती थी वो हमेसा दिन में खाना खाने के बाद पक्षियों को भी दान डालते थे .उनका जीवन बहुत ही संघर्षशील था . 21 दिसम्बर २००७ को वो हम सब से विदा हो गये .उनका १०४ साल का जीवन हमको प्रेरित करता है !
"किसी से ना दबने वाले, ना ही डरने वाले बस अपने स्टाइल में जीवन जीने वाले पूजनीय दादा जी को हम शत शत नमन और श्रधांजलि अर्पित करते है !"
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